ज़ुल्फ़-ए-बरहम की जब से शनासा हुई
ज़िंदगी का चलन मुजरिमाना हुआ
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हम फ़क़ीरों की सूरतों पे न जा
मेरे तसव्वुरात हैं तहरीरें इश्क़ की
तिरी नज़र के इशारों से खेल सकता हूँ
छलके हुए थे जाम परेशाँ थी ज़ुल्फ़-ए-यार
एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
ग़म के मुजरिम ख़ुशी के मुजरिम हैं
कोई ताज़ा अलम न दिखलाए
वो बुलाएँ तो क्या तमाशा हो
इस दर्जा इश्क़ मौजिब-ए-रुस्वाई बन गया
बे-क़रारी में भी अक्सर दर्द-मंदान-ए-जुनूँ
एक शबनम के क़तरे की तक़दीर को
तारों से मेरा जाम भरो मैं नशे में हूँ