क़ाफ़िले मंज़िल-ए-महताब की जानिब हैं रवाँ
मेरी राहों में तिरी ज़ुल्फ़ के बल आते हैं
मैं वो आवारा-ए-तक़दीर हूँ यज़्दाँ की क़सम
लोग दीवाना समझ कर मुझे समझाते हैं
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है एहतिसाब-ए-वक़्त की लटकी हुई सलीब
एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
हम फ़क़ीरों की सूरतों पे न जा
रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं
वक़्त की उम्र क्या बड़ी होगी
आज फिर बुझ गए जल जल के उमीदों के चराग़
कलियों की महक होता तारों की ज़िया होता
मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
सोने चाँदी की चमकती हुई मीज़ानों में
मुस्कुराओ बहार के दिन हैं