छलकी हर मौज-ए-बदन से हुस्न की दरिया-दिली
बुल-हवस कम-ज़र्फ़ दो चुल्लू में मतवाले हुए
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फिरती थी ले के शोरिश-ए-दिल कू-ब-कू हमें
फिर ज़ेहन की गलियों में सदा गूँजी है कोई
क्या मिला ऐ ज़िंदगी क़ानून-ए-फ़ितरत से मुझे
क्या क्या न तिरे शौक़ में टूटे हैं यहाँ कुफ़्र
उस सादा-दिल से कुछ मुझे 'बाक़र' गिला न था
फेरी वाला
नवाह-ए-शौक़ में है इक दयार-ए-निकहत-ए-गुल
पहले चादर की हवस में पाँव फैलाए बहुत
शहर के आबाद सन्नाटों की वहशत देख कर
क्या इश्क़ का लें नाम हवस आम नहीं है
ज़बाँ को ज़ाइका-ए-शेर-ए-तर नहीं मिलता
'बाक़र' निशाना-ए-ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम तो हो