हमारे दम से है रौशन दयार-ए-फ़िक्र-ओ-सुख़न
हमारे बाद ये गलियाँ धुआँ धुआँ होंगी
Allama Iqbal
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ज़ुल्फ़ें इधर खुलीं अधर आँसू उमँड पड़े
रात
है दुकान-ए-शौक़ भरी हुई कोई मेहरबाँ हो तो ले के आ
फ़रेब था अक़्ल-ओ-आगही का कि मेरी फ़िक्र-ओ-नज़र का धोका
अपने जीने को क्या पूछो सुब्ह भी गोया रात रही
उन से वो रस्म-ए-मुलाक़ात चली जाती है
ज़बाँ को ज़ाइका-ए-शेर-ए-तर नहीं मिलता
वो माह-वश है ज़मीं पर नज़र झुकाए हुए
अहद-ए-वफ़ा सुबुक-हवा रंग-ए-वफ़ा के साथ साथ
सामान-ए-दिल को बे-सर-ओ-सामानियाँ मिलीं
हमें चार सम्त की दौड़ में वही गर्द-ए-बाद-ए-सदा मिला