ज़ुल्फ़ें इधर खुलीं अधर आँसू उमँड पड़े
हैं सब के अपने अपने रवाबित घटा के साथ
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शाम
मैं हम-नफ़साँ जिस्म हूँ वो जाँ की तरह था
दिल है तो मुक़ामात-ए-फुग़ाँ और भी होंगे
नुमायाँ और भी रुख़ तेरी बे-रुख़ी में रहे
निखरा ख़िज़ाँ से रंग-ए-बहाराँ है इन दिनों
'बाक़र' निशाना-ए-ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम तो हो
उन से वो रस्म-ए-मुलाक़ात चली जाती है
ज़हर इन के हैं मिरे देखे हुए भाले हुए
शहर के आबाद सन्नाटों की वहशत देख कर
रात
ख़्वाहिश में सुकूँ की वही शोरिश-तलबी है
खींचे है मुझे दस्त-ए-जुनूँ दश्त-ए-तलब में