अजी फेंको रक़ीब का नामा
न इबारत भली न अच्छा ख़त
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तीस दिन यार अब न आएगा
कहना मजनूँ से कि कल तेरी तरफ़ आऊँगा
ज़िंदगी तक मिरी हँस लीजिए आप
की ख़िताबत को गर ख़ुदा समझा
बाम पर आता है हमारा चाँद
हमा-तन हो गए हैं आईना
अपने क़ासिद को सबा बाँधते हैं
चश्म-ए-मय-गूँ वहाँ शराब लज़ीज़
रुख़-ए-रौशन दिखाइए साहब
'सख़ी' बैठिए हट के कुछ उस के दर से
शम्अ को रौशनी का अपने बहुत दावा है
इश्क़ करने में दिल भी क्या है शोख़