बात करने में होंट लड़ते हैं
ऐसे तकरार का ख़ुदा-हाफ़िज़
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ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत
सीने से हमारा दिल न ले जाओ
न छोड़ा हिज्र में भी ख़ाना-ए-तन
नक़्द-ए-दिल का बड़ा तक़ाज़ा है
की ख़िताबत को गर ख़ुदा समझा
न बचपन में कहो हम को कड़ी बात
एक दो तीन चार पाँच छे सात
तस्वीर-ए-चश्म-ए-यार का ख़्वाहाँ है बाग़बाँ
बोसा हर वक़्त रुख़ का लेता है
कअ'बे में सख़्त-कलामी सुन ली
'सख़ी' बैठिए हट के कुछ उस के दर से
जिस के घर जाते न थे हज़रत-ए-दिल