कअ'बे में सख़्त-कलामी सुन ली
बुत-कदे में न कभी आइएगा
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बद्र और महर दो हैं नाम उन के
पहलू में बैठ कर वो पाते क्या
यूँ परेशाँ कभी हम भी तो न थे
दम-ए-यार ता-नज़'अ भर लीजिए
जिस के घर जाते न थे हज़रत-ए-दिल
न छोड़ा हिज्र में भी ख़ाना-ए-तन
चर्ख़ पर बद्र जिस को कहते हैं
हैफ़ साबित है जेब ने दामन
क़ासिद तिरे बार बार आए
यूँही वादा करो यक़ीं हो जाए
शम्अ को रौशनी का अपने बहुत दावा है
बहुत ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में दिन चढ़ गया