जिस के घर जाते न थे हज़रत-ए-दिल
वाँ लगे फाँद ने दीवार ये क्या
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हमा-तन हो गए हैं आईना
इश्क़ है यार का ख़ुदा-हाफ़िज़
दिल ही मेरा फ़क़त है मतलब का
माह-ए-नौ पर्दा-ए-सहाब में है
शम्अ को रौशनी का अपने बहुत दावा है
उन की चुटकी में दिल न मल जाता
देखो क़लई खुलेगी साफ़ उस की
बहुत ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में दिन चढ़ गया
रुख़ पर है मलाल आज कैसा
फिर उलझते हैं वो गेसू की तरह
रंगत उस रुख़ की गुल ने पाई है
मुंकिर-ए-बुत है ये जाहिल तो नहीं