देखो क़लई खुलेगी साफ़ उस की
आईना उन के मुँह चढ़ा है आज
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दम-ए-यार ता-नज़'अ भर लीजिए
इश्क़ करने में दिल भी क्या है शोख़
बात करने में होंट लड़ते हैं
रुख़ पर है मलाल आज कैसा
क्यूँ हसीनों की आँखों से न लड़े
है चमन में रहम गुलचीं को न कुछ सय्याद को
जीतेंगे न हम से बाज़ी-ए-इश्क़
'सख़ी' से छूट कर जाएँगे घर आप
था मिरा नाख़ुन-ए-तराशीदा
ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत
निस्बत वही माह-ए-आसमाँ से