क्यूँ हसीनों की आँखों से न लड़े
मेरी पुतली की मर्दुमी ही तो है
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तुम न आसान को आसाँ समझो
इश्क़ है यार का ख़ुदा-हाफ़िज़
हम उन से आज का शिकवा करेंगे
फिर उलझते हैं वो गेसू की तरह
इस तरफ़ बज़्म में हम थे वो थे
बोसा हर वक़्त रुख़ का लेता है
क्या आतिश-ए-फ़ुर्क़त ने बुरी पाई है तासीर
ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत
जिस के घर जाते न थे हज़रत-ए-दिल
एक दो तीन चार पाँच छे सात
क़ासिद तिरे बार बार आए
घर में साक़ी-ए-मस्त के चल के