क्या आतिश-ए-फ़ुर्क़त ने बुरी पाई है तासीर
इस आग से पानी भी बुझाया नहीं जाता
Wasi Shah
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दफ़्न हम हो चुके तो कहते हैं
मुंकिर-ए-बुत है ये जाहिल तो नहीं
की ख़िताबत को गर ख़ुदा समझा
रंगत उस रुख़ की गुल ने पाई है
चर्ख़ पर बद्र जिस को कहते हैं
ख़ुदा के पास क्या जाएँगे ज़ाहिद
'सख़ी' बैठिए हट के कुछ उस के दर से
ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत
देखो क़लई खुलेगी साफ़ उस की
एक दो तीन चार पाँच छे सात
उन की चुटकी में दिल न मल जाता
जी जाए मगर न वो परी जाए