'सख़ी' बैठिए हट के कुछ उस के दर से
बड़ी भीड़ होगी कुचल जाइएगा
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पहलू में बैठ कर वो पाते क्या
हैफ़ साबित है जेब ने दामन
बहार आ कर जो गुलशन में वो गाएँ
जिस के घर जाते न थे हज़रत-ए-दिल
तीस दिन यार अब न आएगा
अजी फेंको रक़ीब का नामा
ये तो मालूम कि फिर आइएगा
रहते काबे में अकेले क्या हम
शम्अ को रौशनी का अपने बहुत दावा है
की ख़िताबत को गर ख़ुदा समझा
दर्द को गुर्दा तड़पने को जिगर
इश्क़ है यार का ख़ुदा-हाफ़िज़