शैख़-जी बुत की बुराई कीजे
अपने अल्लाह से भरपाइगा
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रुख़ पर है मलाल आज कैसा
था हिना से जो शोख़ मेरा ख़ूँ
क़ाफ़िला जाता है साग़र की तरफ़ रिंदों का
तुम न आसान को आसाँ समझो
बात करने में होंट लड़ते हैं
ये तो मालूम कि फिर आइएगा
तुम अगर दो न पैरहन अपना
तस्वीर-ए-चश्म-ए-यार का ख़्वाहाँ है बाग़बाँ
ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग जो बनाई है
है चमन में रहम गुलचीं को न कुछ सय्याद को
आँखों से पा-ए-यार लगाने की है हवस