कभी पहुँचेगा दिल उन उँगलियों तक
नगीने की तरह ख़ातिम में जड़ के
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मैं तुझे फिर ज़मीं दिखाऊँगा
सीने से हमारा दिल न ले जाओ
बहुत ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में दिन चढ़ गया
चश्म-ए-मय-गूँ वहाँ शराब लज़ीज़
जी जाए मगर न वो परी जाए
दर्द को गुर्दा तड़पने को जिगर
रुख़ हाथ पे रक्खा न करो वक़्त-ए-तकल्लुम
माह-ए-नौ पर्दा-ए-सहाब में है
बर्ग-ए-गुल आ मैं तेरे बोसे लूँ
दफ़्न हम हो चुके तो कहते हैं
हम पे जौर-ओ-सितम के क्या मअनी
अपने क़ासिद को सबा बाँधते हैं