बर्ग-ए-गुल आ मैं तेरे बोसे लूँ
तुझ में है ढंग यार के लब का
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हमा-तन हो गए हैं आईना
दम-ए-यार ता-नज़'अ भर लीजिए
क़ब्र में अब किसी का ध्यान नहीं
बहुत ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में दिन चढ़ गया
दर्द को गुर्दा तड़पने को जिगर
ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत
शम्अ को रौशनी का अपने बहुत दावा है
मुंकिर-ए-बुत है ये जाहिल तो नहीं
क़ासिद तिरे बार बार आए
रुख़-ए-रौशन पे सफ़ा लोट गई
पूजना बुत का है ये क्या मज़मून
जी जाए मगर न वो परी जाए