लफ़्ज़ ले कर ख़याल की वुसअत
शेर की ताज़गी की सम्त गया
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सहमे नहीफ़ दरिया के धारे की बात कर
फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ में शाख़ से पत्ता निकाल दे
शाख़-दर-शाख़ तिरी याद की हरियाली है
शाम ढलते ही तिरे ध्यान में आ जाता हूँ
मैं रात हव्वा
दीद के बदले सदा दीदा-ए-तर रक्खा है
ग़मों की आग पे सब ख़ाल-ओ-ख़द सँवारे गए
खो दिए हैं चाँद कितने इक सितारा माँग कर
अँधेरे को निगलता जा रहा हूँ
कहीं आँखें कहीं बाज़ू कहीं से सर निकल आए