कब तक इन आवारा मौजों का तमाशा देखना
गिन चुके हो साअतों के तार तो वापस चलो
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रहा वो शहर में जब तक बड़ा दबंग रहा
हाँ कहीं जुगनू चमकता था चलो वापस चलो
ज़र्द पत्ते में कोई नुक़्ता-ए-सब्ज़
हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
लगता है वो आज ख़्वाब जैसा
बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है
रेत पर मुझ को गुमाँ पानी का था
आग भी बरसी दरख़्तों पर वहीं
सदियों के रंग-ओ-बू को न ढूँडो गुफाओं में
नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर
यक़ीन है कि वो मेरी ज़बाँ समझता है