आग भी बरसी दरख़्तों पर वहीं
काल बस्ती में जहाँ पानी का था
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किसी रुत में जब मुस्कुराता है तू
लगता है वो आज ख़्वाब जैसा
नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर
रंग ताबीर का टूटे हुए ख़्वाबों में नहीं
रहा वो शहर में जब तक बड़ा दबंग रहा
हाँ कहीं जुगनू चमकता था चलो वापस चलो
सदियों के रंग-ओ-बू को न ढूँडो गुफाओं में
बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है
ज़र्द पत्ते में कोई नुक़्ता-ए-सब्ज़
बातों में है उस की ज़हर थोड़ा
उसे पता है कि रुकती नहीं है छाँव कभी
शहरयारों ने दिखाईं मुझ को तस्वीरें बहुत