उसे पता है कि रुकती नहीं है छाँव कभी
तो फिर वो अब्र को क्यूँ साएबाँ समझता है
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किसी रुत में जब मुस्कुराता है तू
सदियों के रंग-ओ-बू को न ढूँडो गुफाओं में
नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर
हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
आग भी बरसी दरख़्तों पर वहीं
रेत पर मुझ को गुमाँ पानी का था
शहरयारों ने दिखाईं मुझ को तस्वीरें बहुत
अन-कही कह अन-सुनी बातें सुना
लगता है वो आज ख़्वाब जैसा
बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है
वहम ओ ख़िरद के मारे हैं शायद सब लोग