कहने को मुश्त-ए-पर की असीरी तो थी मगर
ख़ामोश हो गया है चमन बोलता हुआ
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कहाँ तक जफ़ा हुस्न वालों की सहते
मिलता जो कोई टुकड़ा इस चर्ख़-ए-ज़बरजद में
बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे
अपने दिल-ए-बेताब से मैं ख़ुद हूँ परेशाँ
मैं नहीं कहता कि दुनिया को बदल कर राह चल
ये आह-ओ-फ़ुग़ाँ क्यूँ है दिल-ए-ज़ार के आगे
असीर-ए-इश्क़-ए-मरज़ हैं तो क्या दवा करते
वस्ल की उम्मीद बढ़ते बढ़ते थक कर रह गई
यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था
ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
दीदा-ए-दोस्त तिरी चश्म-नुमाई की क़सम
हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे