किस नज़र से आप ने देखा दिल-ए-मजरूह को
ज़ख़्म जो कुछ भर चले थे फिर हवा देने लगे
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उस के सुनने के लिए जम'अ हुआ है महशर
अपने दिल-ए-बेताब से मैं ख़ुद हूँ परेशाँ
दीदा-ए-दोस्त तिरी चश्म-नुमाई की क़सम
न आसमान है साकित न दिल ठहरता है
ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था
हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
सुनने वाले रो दिए सुन कर मरीज़-ए-ग़म का हाल
ये आह-ओ-फ़ुग़ाँ क्यूँ है दिल-ए-ज़ार के आगे
मिलता जो कोई टुकड़ा इस चर्ख़-ए-ज़बरजद में
ग़श भी आया मिरी पुर्सिश को क़ज़ा भी आई
आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर