ख़ुलूस-ए-दिल से सज्दा हो तो उस सज्दे का क्या कहना
वहीं काबा सरक आया जबीं हम ने जहाँ रख दी
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वो आईना हो या हो फूल तारा हो कि पैमाना
मेरी रिफ़अत पर जो हैराँ है तो हैरानी नहीं
ब-क़द्र-ए-शौक़ इक़रार-ए-वफ़ा क्या
अब वहाँ दामन-कशी की फ़िक्र दामन-गीर है
क्या ढूँढने जाऊँ मैं किसी को
सारे चमन को मैं तो समझता हूँ अपना घर
मोहब्बत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इंसाँ पर
रोज़-ए-फ़िराक़ हर तरफ़ इक इंतिशार था
ज़ब्त से ना-आश्ना हम सब्र से बेगाना हम
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाई थी चार दिन
हुस्न में जब नाज़ शामिल हो गया
वुसअतें महदूद हैं इदराक-ए-इंसाँ के लिए