मरकज़ पे अपने धूप सिमटती है जिस तरह
यूँ रफ़्ता रफ़्ता तेरे क़रीब आ रहा हूँ मैं
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गौतम-बुद्ध
जिंदान-ए-काएनात में महसूर कर दिया
माज़ी-ए-मरहूम की नाकामियों का ज़िक्र छोड़
नाहक़ शिकायत-ए-ग़म-ए-दुनिया करे कोई
जो उम्र तेरी तलब में गँवाए जाते हैं
वो जब रंग-ए-परेशानी को ख़ल्वत-गीर देखेंगे
दिल तेरे तग़ाफ़ुल से ख़बर-दार न हो जाए
हुस्न के दिल में जगह पाते ही दीवाना बने
हुस्न में जब नाज़ शामिल हो गया
जब दिल पे छा रही हों घटाएँ मलाल की
वुसअतें महदूद हैं इदराक-ए-इंसाँ के लिए
सहरा से बार बार वतन कौन जाएगा