सहरा से बार बार वतन कौन जाएगा
क्यूँ ऐ जुनूँ यहीं न उठा लाऊँ घर को मैं
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मुझे फ़िक्र-ओ-सर-ए-वफ़ा है हनूज़
मिरी ख़ामोशियों पर दुनिया मुझ को तअन देती है
कहानी मेरी रूदाद-ए-जहाँ मालूम होती है
वो आईना हो या हो फूल तारा हो कि पैमाना
तुझे दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ
न वो फ़रियाद का मतलब न मंशा-ए-फ़ुग़ाँ समझे
क्यूँ जाम-ए-शराब-ए-नाब माँगूँ
खो कर तिरी गली में दिल-ए-बे-ख़बर को मैं
परेशाँ होने वालों को सुकूँ कुछ मिल भी जाता है
अब ऐ बे-दर्द क्या इस के लिए इरशाद होता है
शायद जगह नसीब हो उस गुल के हार में
ख़ुलूस-ए-दिल से सज्दा हो तो उस सज्दे का क्या कहना