परेशाँ होने वालों को सुकूँ कुछ मिल भी जाता है
परेशाँ करने वालों की परेशानी नहीं जाती
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शायद जगह नसीब हो उस गुल के हार में
गुनाहों पर वही इंसान को मजबूर करती है
हद हो कोई तो सब्र तिरे हिज्र पर करें
जहान-ए-रंग-ओ-बू में मुस्तक़िल तख़्लीक़-ए-मस्ती है
जिस जगह जम्अ तिरे ख़ाक-नशीं होते हैं
इश्क़ ख़ुद माइल-ए-हिजाब है आज
अफ़सोस गुज़र गई जवानी
महफ़िल-ए-इश्क़ में जब नाम तिरा लेते हैं
है हुसूल-ए-आरज़ू का राज़ तर्क-ए-आरज़ू
मेरी रिफ़अत पर जो हैराँ है तो हैरानी नहीं
ख़ुद उठ के हाथ मेरे गरेबाँ में आ गए
आओ फिर गर्मी दयार-ए-इश्क़ में पैदा करें