कहानी मेरी रूदाद-ए-जहाँ मालूम होती है
जो सुनता है उसी की दास्ताँ मालूम होती है
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माज़ी-ए-मरहूम की नाकामियों का ज़िक्र छोड़
मिरी दीवानगी पर होश वाले बहस फ़रमाएँ
ये मेरी तीरा-नसीबी ये सादगी ये फ़रेब
हद हो कोई तो सब्र तिरे हिज्र पर करें
इजाज़त दे कि अपनी दास्तान-ए-ग़म बयाँ कर लें
चमक जुगनू की बर्क़-ए-बे-अमाँ मालूम होती है
तक़दीर में इज़ाफ़ा-ए-सोज़-ए-वफ़ा हुआ
बड़ी दिलचस्पियों से सुब्ह-ए-शाम-ए-ज़िंदगी होगी
ख़ुदा और नाख़ुदा मिल कर डुबो दें ये तो मुमकिन है
जाग और देख ज़रा आलम-ए-वीराँ मेरा
जो इंसाँ बारयाब-ए-पर्दा-ए-असरार हो जाए
जिस जगह जम्अ तिरे ख़ाक-नशीं होते हैं