रोज़ कहता हूँ कि अब उन को न देखूँगा कभी
रोज़ उस कूचे में इक काम निकल आता है
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वो आईना हो या हो फूल तारा हो कि पैमाना
अब ऐ बे-दर्द क्या इस के लिए इरशाद होता है
ख़ुद उठ के हाथ मेरे गरेबाँ में आ गए
शुक्रिया हस्ती का! लेकिन तुम ने ये क्या कर दिया
अज़्म-ए-फ़रियाद! उन्हें ऐ दिल-ए-नाशाद नहीं
मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला
ये मेरी तीरा-नसीबी ये सादगी ये फ़रेब
जरस है कारवान-ए-अहल-ए-आलम में फ़ुग़ाँ मेरी
क्या ढूँढने जाऊँ मैं किसी को
नसीम-ए-सुब्ह गुलशन में गुलों से खेलती होगी
देखते रहते हैं छुप-छुप के मुरक़्क़ा तेरा