हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह
इधर से मुद्दतों आया गया हूँ
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ग़म-ए-फ़िराक़ मय ओ जाम का ख़याल आया
एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
शहरों में फिरे न सू-ए-सहरा निकले
निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को
मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
जिसे पाला था इक मुद्दत तक आग़ोश-ए-तमन्ना में
नज़र की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है
हज़ार शुक्र मैं तेरे सिवा किसी का नहीं
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
किस पे क़ाबू जो तुझी पे नहीं क़ाबू अपना