इज़हार-ए-मुद्दआ का इरादा था आज कुछ
तेवर तुम्हारे देख के ख़ामोश हो गया
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काबा ओ दैर में जल्वा नहीं यकसाँ उन का
क्यूँ-कर न रहे ग़म-ए-निहानी तेरा
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
हर हाल में आबरू-ए-फ़न लाज़िम है
एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
तिरा आस्ताँ जो न मिल सका तिरी रहगुज़र की ज़मीं सही
जिस दिल में ग़ुबार हो वो दिल साफ़ कहाँ
क्यूँ हो बहाना-जू न क़ज़ा सर से पाँव तक
क्या फ़क़त तालिब-ए-दीदार था मूसा तेरा
कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऐ साक़ी
निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को