नज़र की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है
हमारा आप का जीना नहीं जीना उसी का है
Ahmad Faraz
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Gulzar
Parveen Shakir
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Allama Iqbal
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हक़्क़ा कि वो जादा-ए-वफ़ा से भी फिरा
कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला
काबा ओ दैर में जल्वा नहीं यकसाँ उन का
रौशन है कि शाद-ए-सुख़न-आरा मैं हूँ
मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
शहरों में फिरे न सू-ए-सहरा निकले
इज़हार-ए-मुद्दआ का इरादा था आज कुछ
दिल मोरिद-ए-ईज़ा-ओ-बला होता है
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
फ़क़त शोर-ए-दिल-ए-पुर-आरज़ू था