रौशन है कि शाद-ए-सुख़न-आरा मैं हूँ
समझो न मुझे ग़ैर तुम्हारा मैं हूँ
मग़रिब में शुआ बढ़ के पहुँचेगी ज़रूर
मशरिक़ का चमकता हुआ तारा मैं हूँ
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कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
हर हाल में आबरू-ए-फ़न लाज़िम है
अख़्लाक़ से जहल इल्म-ओ-फ़न से ग़ाफ़िल
मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
किस बुरी साअत से ख़त ले कर गया
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
बदले न सदाक़त का निशाँ एक रहे
मज़मूँ मेरे दिल में बे-तलब आते हैं
तारीफ़ बताऊँ शेर की क्या क्या है
अब इंतिहा का तिरे ज़िक्र में असर आया
काबा ओ दैर में जल्वा नहीं यकसाँ उन का
चालाक हैं सब के सब बढ़ते जाते हैं