मज़मूँ मेरे दिल में बे-तलब आते हैं
क़ुदसी तबक़-ए-नूर में दबे जाते हैं
कुछ और नहीं इल्म मुझे इस के सिवा
कहता हूँ वही जो मुझ से कहलवाते हैं
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बदले न सदाक़त का निशाँ एक रहे
कुछ कहे जाता था ग़र्क़ अपने ही अफ़्साने में था
क्या फ़क़त तालिब-ए-दीदार था मूसा तेरा
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
चमन में जा के हम ने ग़ौर से औराक़-ए-गुल देखे
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
हज़ार शुक्र मैं तेरे सिवा किसी का नहीं
तारीफ़ बताऊँ शेर की क्या क्या है
ये वहम किसी तरह न माक़ूल हुआ
रौशन है कि शाद-ए-सुख़न-आरा मैं हूँ
अब इंतिहा का तिरे ज़िक्र में असर आया