बदले न सदाक़त का निशाँ एक रहे
हर हाल में पिन्हाँ ओ निहाँ एक रहे
इंसाँ है वही जो इस दौर-ए-दो-रंगी से बचे
लाज़िम है कि दिल और ज़बाँ एक रहे
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तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
हर तरह की दिल में चाह कर के छोड़े
ऐ बुत जफ़ा से अपनी लिया कर वफ़ा का काम
जिए जाएँगे हम भी लब पे दम जब तक नहीं आता
सियाहकार सियह-रू ख़ता-शिआर आया
अर्बाब-ए-क़ुयूद तुझ को क्या देखेंगे
कुछ कहे जाता था ग़र्क़ अपने ही अफ़्साने में था
क्या फ़क़त तालिब-ए-दीदार था मूसा तेरा
अब इंतिहा का तिरे ज़िक्र में असर आया
निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को
ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया