बाज़ अहल-ए-वतन से अब भी दुख पाता हूँ
तहसील-ए-कमाल कर के पछताता हूँ
ऐसों की सदाओं का कुछ इतना नहीं वज़्न
क्या अर्ज़ करूँ इस पे दबा जाता हूँ
Gulzar
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हज़ार शुक्र मैं तेरे सिवा किसी का नहीं
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला
जब किसी ने हाल पूछा रो दिया
रौशन है कि शाद-ए-सुख़न-आरा मैं हूँ
इज़हार-ए-मुद्दआ का इरादा था आज कुछ
अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम आएगा
साक़ी के करम से फ़ैज़ ये जारी है
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
था अजल का मैं अजल का हो गया
न दिल अपना न ग़म अपना न कोई ग़म-गुसार अपना
कुछ कहे जाता था ग़र्क़ अपने ही अफ़्साने में था