परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
गुज़री है रात शम्अ पे क्या देखते चलें
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ता-उम्र आश्ना न हुआ दिल गुनाह का
नज़र की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है
जिस वक़्त का डर था वो शबाब आ पहुँचा
बाज़ अहल-ए-वतन से अब भी दुख पाता हूँ
अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम आएगा
ये वहम किसी तरह न माक़ूल हुआ
कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
क्यूँ हो बहाना-जू न क़ज़ा सर से पाँव तक
साक़ी के करम से फ़ैज़ ये जारी है
ग़म-ए-फ़िराक़ मय ओ जाम का ख़याल आया
न जाँ-बाज़ों का मजमा था न मुश्ताक़ों का मेला था
इस सिलसिला-ए-शुहूद को तोड़ दिया