सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियाँ से सुनी
न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम
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हरगिज़ कभी किसी से न रखना दिला ग़रज़
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला
चमन में जा के हम ने ग़ौर से औराक़-ए-गुल देखे
कहते हैं अहल-ए-होश जब अफ़्साना आप का
जो चाहिए देखना न देखा मैं ने
मज़मूँ मेरे दिल में बे-तलब आते हैं
क्यूँ बात छुपाऊँ रिंद-ए-मय-नोश हूँ मैं
जिसे पाला था इक मुद्दत तक आग़ोश-ए-तमन्ना में
निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को
हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह