तलब करें भी तो क्या शय तलब करें ऐ 'शाद'
हमें तो आप नहीं अपना मुद्दआ मालूम
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भरे हों आँख में आँसू ख़मीदा गर्दन हो
हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह
दिल मोरिद-ए-ईज़ा-ओ-बला होता है
क्या फ़क़त तालिब-ए-दीदार था मूसा तेरा
था अजल का मैं अजल का हो गया
जिस वक़्त का डर था वो शबाब आ पहुँचा
दिल-ए-मुज़्तर से पूछ ऐ रौनक़-ए-बज़्म
मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
तिरा आस्ताँ जो न मिल सका तिरी रहगुज़र की ज़मीं सही
परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
सियाहकार सियह-रू ख़ता-शिआर आया
हक़्क़ा कि वो जादा-ए-वफ़ा से भी फिरा