दिल-ए-मुज़्तर से पूछ ऐ रौनक़-ए-बज़्म
मैं ख़ुद आया नहीं लाया गया हूँ
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क्या फ़क़त तालिब-ए-दीदार था मूसा तेरा
तन्हा है चराग़ दूर परवाने हैं
क्यूँ-कर न रहे ग़म-ए-निहानी तेरा
नज़र की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है
कहते हैं अहल-ए-होश जब अफ़्साना आप का
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
जिसे पाला था इक मुद्दत तक आग़ोश-ए-तमन्ना में
हरगिज़ कभी किसी से न रखना दिला ग़रज़
एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
अब इंतिहा का तिरे ज़िक्र में असर आया
भरे हों आँख में आँसू ख़मीदा गर्दन हो
काबा ओ दैर में जल्वा नहीं यकसाँ उन का