कहते हैं अहल-ए-होश जब अफ़्साना आप का
हँसता है देख देख के दीवाना आप का
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लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपाए
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
साक़ी के करम से फ़ैज़ ये जारी है
क्यूँ-कर न रहे ग़म-ए-निहानी तेरा
जिए जाएँगे हम भी लब पे दम जब तक नहीं आता
तलब करें भी तो क्या शय तलब करें ऐ 'शाद'
इस सिलसिला-ए-शुहूद को तोड़ दिया
जिसे पाला था इक मुद्दत तक आग़ोश-ए-तमन्ना में
कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
मिलेगा ग़ैर भी उन के गले ब-शौक़ ऐ दिल
परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका