लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपाए
भरी महफ़िल से उठवाया गया हूँ
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ये रात भयानक हिज्र की है काटेंगे बड़े आलाम से हम
न जाँ-बाज़ों का मजमा था न मुश्ताक़ों का मेला था
दिल मोरिद-ए-ईज़ा-ओ-बला होता है
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को
शहरों में फिरे न सू-ए-सहरा निकले
सौ तरह का मेरे लिए सामान क्या
इज़हार-ए-मुद्दआ का इरादा था आज कुछ
जो चाहिए देखना न देखा मैं ने
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
चालाक हैं सब के सब बढ़ते जाते हैं