कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
अभी तक राह में वो कर रहे हैं इंतिज़ार अपना
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तमाम उम्र नमक-ख़्वार थे ज़मीं के हम
फ़क़त शोर-ए-दिल-ए-पुर-आरज़ू था
था अजल का मैं अजल का हो गया
भरे हों आँख में आँसू ख़मीदा गर्दन हो
मज़मूँ मेरे दिल में बे-तलब आते हैं
क्या मुफ़्त ज़ाहिदों ने इल्ज़ाम लिया
किस पे क़ाबू जो तुझी पे नहीं क़ाबू अपना
जीते जी हम तो ग़म-ए-फ़र्दा की धुन में मर गए
सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियाँ से सुनी
नज़र की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है
क्यूँ हो बहाना-जू न क़ज़ा सर से पाँव तक
जो चाहिए देखना न देखा मैं ने