तन्हा है चराग़ दूर परवाने हैं
अपने थे जो कल आज वो बेगाने हैं
बे-रंगी-ए-दुनिया का न पूछो अहवाल
क़िस्से हैं कहानियाँ हैं अफ़्साने हैं
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तारीफ़ बताऊँ शेर की क्या क्या है
किस पे क़ाबू जो तुझी पे नहीं क़ाबू अपना
हक़्क़ा कि वो जादा-ए-वफ़ा से भी फिरा
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
हज़ार हैफ़ छुटा साथ हम-नशीनों का
लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपाए
कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
चालाक हैं सब के सब बढ़ते जाते हैं
साक़ी के करम से फ़ैज़ ये जारी है
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम