क्यूँ बात छुपाऊँ रिंद-ए-मय-नोश हूँ में
दुनिया कहती कि दीन-फ़रामोश हूँ मैं
हसरत से गिरूँ तो पा-ए-साक़ी पे गिरूँ
जब ख़ूब शराब पी के मदहोश हूँ मैं
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अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
हक़्क़ा कि वो जादा-ए-वफ़ा से भी फिरा
सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियाँ से सुनी
कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
ग़म-ए-फ़िराक़ मय ओ जाम का ख़याल आया
इस सिलसिला-ए-शुहूद को तोड़ दिया
न दिल अपना न ग़म अपना न कोई ग़म-गुसार अपना
था अजल का मैं अजल का हो गया
तन्हा है चराग़ दूर परवाने हैं
कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
न जाँ-बाज़ों का मजमा था न मुश्ताक़ों का मेला था
सौ तरह का मेरे लिए सामान क्या