कश्ती का ज़िम्मेदार फ़क़त नाख़ुदा नहीं
कश्ती में बैठने का सलीक़ा भी चाहिए
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Gulzar
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Javed Akhtar
Wasi Shah
Allama Iqbal
Anwar Masood
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(696) Peoples Rate This
यूँ तसव्वुर में बसर रात किया करते थे
ऐसी नींद आई कि फिर मौत को प्यार आ ही गया
आ गया था एक दिन लब पर जफ़ाओं का गिला
फ़रेब-ए-रौशनी में आने वालो मैं न कहता था
कली पर मुस्कुराहट आज भी मालूम होती है
तुझे हम दोपहर की धूप में देखेंगे ऐ ग़ुंचे
वो गर्म आँसुओं की रवानी तमाम रात
कोई टूटी हुई कश्ती का तख़्ता भी अगर है ला
इश्क़ की इब्तिदा तो जानते हैं
कमाल-ए-आशिक़ी हर शख़्स को हासिल नहीं होता
जला वो शम्अ कि आँधी जिसे बुझा न सके
कब से इस दुनिया को सरगर्म-ए-सफ़र पाता हूँ मैं