कमाल-ए-आशिक़ी हर शख़्स को हासिल नहीं होता
हज़ारों में कोई मजनूँ कोई फ़रहाद होता है
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मौसम-ए-गुल है न दौर-जाम-ओ-सहबा रह गया
कोई टूटी हुई कश्ती का तख़्ता भी अगर है ला
ऐसी नींद आई कि फिर मौत को प्यार आ ही गया
जला वो शम्अ कि आँधी जिसे बुझा न सके
इश्क़ की इब्तिदा तो जानते हैं
आ गया था एक दिन लब पर जफ़ाओं का गिला
वो गर्म आँसुओं की रवानी तमाम रात
तुझे हम दोपहर की धूप में देखेंगे ऐ ग़ुंचे
फ़रेब-ए-रौशनी में आने वालो मैं न कहता था
कली पर मुस्कुराहट आज भी मालूम होती है
कब से इस दुनिया को सरगर्म-ए-सफ़र पाता हूँ मैं
यूँ तसव्वुर में बसर रात किया करते थे