आ गया था एक दिन लब पर जफ़ाओं का गिला
आज तक जब उन से मिलते हैं तो शरमाते हैं हम
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कब से इस दुनिया को सरगर्म-ए-सफ़र पाता हूँ मैं
यूँ तसव्वुर में बसर रात किया करते थे
पर्दा पड़ा हुआ था ख़ुदी ने उठा दिया
कली पर मुस्कुराहट आज भी मालूम होती है
कमाल-ए-आशिक़ी हर शख़्स को हासिल नहीं होता
वो गर्म आँसुओं की रवानी तमाम रात
मौसम-ए-गुल है न दौर-जाम-ओ-सहबा रह गया
ऐसी नींद आई कि फिर मौत को प्यार आ ही गया
इश्क़ की इब्तिदा तो जानते हैं
तुझे हम दोपहर की धूप में देखेंगे ऐ ग़ुंचे
जला वो शम्अ कि आँधी जिसे बुझा न सके