आज जिस तनाज़ुर में
काएनात को देखा
हर तरह मुकम्मल थी
पहले इतनी शिद्दत से
कब ख़याल आया था
इस क़दर अकेला हूँ
Ahmad Faraz
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ख़ला सा कहीं है
इनायत है तिरी बस एक एहसान और इतना कर
महसूर था
मैं नहीं रोता हूँ अब ये आँख रोती है मुझे
अहल-ए-दिल को बुला रहा हूँ
पतंग उड़ाने से पहले
मिरे अलावा सभी लोग अब ये मानते हैं
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
वो एक लम्हा-ए-रफ़्ता भी क्या बुला लाया
वो बात
फ़ज़ा होती ग़ुबार-आलूदा सूरज डूबता होता
तो क्या तड़प न थी अब के मिरे पुकारे में