नग़्मगी आरज़ू की बिखरी है
रात शर्मा रही है अपने से
होंट उम्मीद के फड़कते हैं
पाँव हसरत के लड़खड़ाते हैं
दूर पलकों से आँसुओं के क़रीब
नींद दामन समेटे बैठी है
ख़्वाब ताबीर के शिकस्ता दिल
आज फिर जोड़ने को आए हैं
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एक काली नज़्म
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
हँस रहा था मैं बहुत गो वक़्त वो रोने का था
आसमाँ कुछ भी नहीं अब तेरे करने के लिए
मैं अकेला सही मगर कब तक
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
बे-ताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हम को
मैं सोचता हूँ मगर याद कुछ नहीं आता
नशात-ए-ग़म भी मिला रंज-ए-शाद-मानी भी
ये जगह अहल-ए-जुनूँ अब नहीं रहने वाली
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में