हिमालिया की बुलंद चोटी पे
बर्फ़ के एक सुबुक मकाँ में
बुझी हुई मिश्अलों का जल्सा
अज़ीम और आलमी मसाइल पे
एक हफ़्ते से हो रहा है
सिफ़्र तलक दर्जा-ए-हरारत पहुँच चुका है
मज़ीद तफ़्सील राज़ में है
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ज़िंदा रहने का ये एहसास
लोग सर फोड़ कर भी देख चुके
एक काली नज़्म
पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
मा'बद-ए-ज़ीस्त में बुत की मिसाल जड़े होंगे
पिछले सफ़र में जो कुछ बीता बीत गया यारो लेकिन
वापसी
चल चल के थक गया है कि मंज़िल नहीं कोई
है आज ये गिला कि अकेला है 'शहरयार'
अपनी याद में
जिस्म की कश्ती में आ